“प्रतिस्पर्धा नहीं, सहयोग चाहिए: युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य की पुकार”

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कुमारी हिमानी गहलोत, बी. ए फाइनल, अग्रवाल गर्ल्स कॉलेज,श्रीगंगानगर |

आज के आधुनिक युग में युवा वर्ग देश की सबसे बड़ी ताकत माना जाता है। यही युवा कल का भविष्य हैं, जो राष्ट्र की दिशा और दशा तय करते हैं। लेकिन जब यही युवाओं की ऊर्जा दबाव, डर और सामाजिक अपेक्षाओं के बोझ से दम तोड़ देती है, तो यह केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं रहती बल्कि यह एक सामाजिक विफलता बन जाती है। भारत में कोटा जैसे शैक्षणिक केंद्रों में, जहां लाखों छात्र हर साल डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना लेकर आते हैं, वहां लगातार छात्र आत्महत्याओं की घटनाएं सामने आ रही हैं। ये घटनाएं हम सभी को एक कठोर सवाल पूछती हैं क्या हम अपने बच्चों को सफलता के नाम पर एक अंधी दौड़ में झोंक रहे हैं?

कोटा में हर साल हजारों छात्र प्रतिष्ठित संस्थानों की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं। वे सुबह से रात तक पढ़ाई में लगे रहते हैं कोचिंग में 6 से 7 घंटे, फिर सेल्फ-स्टडी, टेस्ट सीरीज़, लाइब्रेरी का दबाव और हर समय सफलता की चिंता। इन सबके बावजूद अगर परिणाम अपेक्षित नहीं आता, तो छात्र खुद को नाकाम समझने लगता है। हाल ही में एक छात्रा, जो NEET की तैयारी कर रही थी, ने सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि वह बार-बार की असफलता से टूट चुकी थी। उसने अपनी डायरी में लिखा, “मैं थक गई हूं… पापा, माफ़ कर देना।” यह घटना अकेली नहीं है। ऐसी कहानियां बार-बार दोहराई जा रही हैं।

दूसरी ओर, कई बार छात्र खुद डॉक्टर या इंजीनियर बनना नहीं चाहते, लेकिन उनके माता-पिता खासकर पिता उन पर अपने अधूरे सपनों का बोझ डाल देते हैं। बच्चे की रुचि चाहे कहीं और हो, जैसे कला, डिजाइनिंग, संगीत या कोई अन्य क्षेत्र, लेकिन उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे मेडिकल या आईआईटी जैसी संस्थाओं में दाख़िला लें और परिवार का नाम रोशन करें। ऐसे में जब छात्र अपने मन की बात नहीं कह पाते और समाज, परिवार या खुद से संघर्ष करते हैं, तो यह मानसिक बीमारी का रूप ले लेता है जैसे चिंता, अवसाद, आत्मग्लानि और अकेलापन। एक दिन वह खुद से ही हार जाता है, और यह हार कभी-कभी जीवन समाप्त कर देने तक पहुंच जाती है।

जब भी ऐसी दुखद घटनाएं होती हैं, मीडिया में बड़ी-बड़ी हेडलाइन्स छपती हैं, सोशल मीडिया पर कुछ दिनों तक संवेदना की लहर चलती है, और फिर सब कुछ भुला दिया जाता है। लेकिन उस एक छात्र का परिवार जीवनभर यह सोचता रह जाता है कि काश हमने समय रहते उसकी बात सुनी होती, काश उसने कह दिया होता कि वह खुश नहीं है, काश हम समझ पाते कि वह अपने सपनों में नहीं, हमारे सपनों में उलझ गया था।

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लेखिका, कुमारी हिमानी गहलोत, बी. ए फाइनल, अग्रवाल गर्ल्स कॉलेज,श्रीगंगानगर |

इस गंभीर समस्या का समाधान केवल अफसोस जताने से नहीं होगा। हमें समाज के हर स्तर पर ठोस पहल करनी होगी। सबसे पहले माता-पिता को समझना होगा कि हर बच्चा एक जैसा नहीं होता। हर किसी की रुचियां, क्षमताएं और सपने अलग होते हैं। बच्चों को अपनी पसंद के करियर में आगे बढ़ने का अवसर देना चाहिए। अगर वह असफल हो भी जाए, तो उन्हें यह भरोसा दिलाना ज़रूरी है कि यह अंत नहीं है बल्कि एक नया अवसर है। “अगर इस बार नहीं हुआ, तो अगली बार सही, हम तुम्हारे साथ हैं” इतना कहना शायद एक जीवन बचा सकता है।

शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों को केवल रैंक और नंबर के आधार पर न आंकें। उन्हें छात्रों की मानसिक स्थिति को समझना चाहिए और प्रेरणा देने वाली भूमिका निभानी चाहिए। हर कोचिंग संस्थान में नियमित मानसिक स्वास्थ्य परामर्श (काउंसलिंग) की व्यवस्था होनी चाहिए, जहां छात्र खुलकर बात कर सकें। वहीं सरकार को भी चाहिए कि कोटा जैसे शैक्षणिक हब्स में मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन और टास्क फोर्स सक्रिय रूप से संचालित की जाए।

छात्रों को भी यह समझना चाहिए कि एक परीक्षा या एक अंक आपकी पूरी ज़िंदगी तय नहीं करता। असफलता एक अनुभव है, न कि पहचान। इतिहास ऐसे हजारों लोगों से भरा पड़ा है जिन्होंने जीवन में कई बार असफल होने के बाद अपार सफलता हासिल की। अमिताभ बच्चन, जे.के. रोलिंग, थॉमस एडिसन ये सभी असफलताओं के बाद ही अपने क्षेत्र में चमके।

आज के समय में सफलता की अंधी दौड़ पर अगर अंकुश नहीं लगाया गया, तो ऐसी दुखद घटनाएं बार-बार दोहराई जाएंगी। हमें चाहिए कि हम अपने बच्चों को प्रतिस्पर्धा नहीं, सहयोग, संवाद और समझ देना शुरू करें। क्योंकि हर परीक्षा पास करना जरूरी नहीं पर  हर ज़िंदगी बचाना सबसे जरूरी है।

अगर आप या आपका कोई जानने वाला मानसिक तनाव, चिंता या अवसाद से जूझ रहा है, तो चुप न रहें। किसी भरोसेमंद व्यक्ति से बात करें या मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ की मदद लें।
बोलिए, क्योंकि बात करने से हल निकलता है।

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3 thoughts on ““प्रतिस्पर्धा नहीं, सहयोग चाहिए: युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य की पुकार”

  1. Dear Himani, आपने एक बहुत ही सवेंदनशील विषय पर यह लेख लिखा हैं|कोटा जैसे शैक्षणिक शहरों में हो रही आत्महत्याएं केवल आंकड़े नहीं हैं, बल्कि हमारी शिक्षा प्रणाली, पारिवारिक अपेक्षाओं और सामाजिक संवेदनाओं पर एक कठोर प्रश्न हैं। हमें अब यह समझना होगा कि हर बच्चा एक जैसा नहीं होता, और उसकी सफलता केवल डॉक्टर या इंजीनियर बनने से नहीं आंकनी चाहिए।
    मैं दिल से आह्वान करती हूं कि हम सभी—माता-पिता, शिक्षक, समाज—एक सुरक्षित, समझदार और संवेदनशील वातावरण बनाने की दिशा में प्रयास करें। क्योंकि हर परीक्षा ज़रूरी नहीं होती, लेकिन हर ज़िंदगी अनमोल होती है।

  2. Thank you mam
    This is one of the major societal problem which impacted not only youngsters but whole nation so we should take major steps towards this problem by small small individual efforts

  3. “Very nice article, Himani. You’ve shared a very true and important fact about education and enforcement. We should genuinely support our children and give them the freedom to choose their own path.”

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