Dr. Mamta Sharma, Assistant Professor, Agarwal Girls College, Sri Ganganagar
मनुष्य केवल देहधारी प्राणी नहीं है; उसके भीतर एक अंतहीन यात्रा चल रही होती है—जानने, समझने, और अपने अस्तित्व को अर्थ देने की। यही बौद्धिक और आत्मिक यात्रा उसे भीड़ से अलग बनाती है। जब वह जिज्ञासु होता है, प्रश्न करता है, और अनुभवों से जीवन को समझता है, तब वह वास्तव में “मनुष्य” कहलाने योग्य बनता है। किंतु जब यह यात्रा बाधित हो जाती है, तो वह केवल एक शारीरिक संरचना बनकर रह जाता है—बाहर से गतिशील, भीतर से शून्य।
शिक्षा का प्रयोजन: दीप या दस्तावेज़?
प्राचीन मनीषियों ने शिक्षा को “दीप” कहा है—एक ऐसा प्रकाश जो व्यक्ति के भीतर जागरूकता की लौ जलाता है। परंतु यदि यह लौ केवल निर्देशित पथ पर चलने के लिए बाध्य हो, या किसी पूर्व निर्धारित साँचे में ढलने को विवश कर दी जाए, तो वह प्रेरणा नहीं देती, बल्कि विचार की स्वतंत्रता को बाधित करती है।
आज की कक्षाओं में बैठा विद्यार्थी श्रोता है, जिज्ञासु नहीं। वह सुनता है, याद करता है, उत्तर देता है, और फिर भूल जाता है। शिक्षा का मूल उद्देश्य—जिज्ञासा और आत्मबोध—धीरे-धीरे विलुप्त हो रहा है। किताबों में उत्तर हैं, पर जीवन में अनगिनत प्रश्न अब भी अनुत्तरित हैं। इस गहरी खाई को कोई देख नहीं रहा।
प्रमाण-पत्र बनाम समझ
समय के साथ शिक्षा का मूल्य एक प्रमाण-पत्र में समाहित हो गया है। यह प्रमाण यह दर्शाता है कि अमुक व्यक्ति ने किसी संस्था में कितने वर्ष बिताए, परंतु उसने क्या सीखा, यह पूछने की परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो गई है। अनुभव, जो जीवन का सर्वोच्च शिक्षक है, अब मूल्यहीन प्रतीत होता है क्योंकि वह किसी डिग्री में परिलक्षित नहीं होता।
इस प्रवृत्ति ने उन लोगों को हाशिए पर ला दिया है जिन्होंने जीवन से सीखा, प्रयोग किया, असफल हुए, और फिर खड़े हुए—लेकिन जिनके पास प्रस्तुत करने को केवल अनुभव है, कोई प्रमाण नहीं। और आज का समाज प्रमाणों को गिनता है, अनुभवों को नहीं।
शिक्षा का क्षरण: सोचने का संकट
एक ऐसा समाज जहाँ शिक्षा केवल डिग्री अर्जन का माध्यम बन जाए, वहाँ रचनात्मकता और नवाचार की संभावनाएँ क्षीण हो जाती हैं। वहां विद्यार्थी एक तयशुदा दिशा में दौड़ते हैं, पर यह नहीं जानते कि इस दौड़ का अंतिम बिंदु क्या है। यह सोचने का अवसर ही नहीं दिया जाता कि ‘मुझे क्या बनना है?’—सभी केवल यह जानना चाहते हैं कि ‘कैसे बनना है?’ यही कारण है कि हम ‘निर्माण’ नहीं कर रहे, बल्कि ‘नकल’ कर रहे हैं—विचारों की भी, जीवन की भी।
पाठ्यक्रम से परे समझ की ज़रूरत
वास्तविक समझ वह है जो भीतर से उपजती है। जब कोई व्यक्ति स्वयं से प्रश्न करता है, किसी अवधारणा को जीता है, तभी वह वास्तविक रूप से शिक्षित होता है। आज शिक्षा निर्देश देती है, प्रेरणा नहीं। यह दोहराने को कहती है, समझने की स्वतंत्रता नहीं देती। और जो सोचने का साहस करता है, वह कभी-कभी हास्य का पात्र बनता है या हाशिए पर डाल दिया जाता है, क्योंकि वह उस साँचे में नहीं आता जिसे समाज ने पहले से स्वीकृत कर रखा है।
एक संवादहीन समाज की आहट
परिणामस्वरूप एक ऐसा समाज जन्म लेता है जहाँ सब कुछ है—प्रौद्योगिकी, संसाधन, उपाधियाँ—पर भीतर कोई संवाद नहीं। लोग चलते हैं, पर दिशा नहीं होती। वे प्रशिक्षित होते हैं, पर साक्षर नहीं। उन्हें बताया गया है कि क्या करना है, पर यह नहीं कि क्यों करना है। जीवन गति में है, लेकिन चेतना में नहीं।
पुनरावश्यकता: शिक्षा का पुनर्परिभाषण
आज समय आ गया है कि हम शिक्षा को केवल “जानकारी देने वाली प्रक्रिया” के रूप में न देखें, बल्कि उसे “जाग्रति देने वाली प्रक्रिया” के रूप में पुनर्परिभाषित करें। शिक्षा वह हो जो केवल योग्य नहीं, बल्कि सजग, संवेदनशील और समर्पित नागरिक तैयार करे। जब तक यह नहीं होगा, तब तक शिक्षा एक औपचारिक दस्तावेज़ बनकर रह जाएगी—और समाज एक ऐसे समूह में परिणत होता जाएगा जो सोचने से अधिक प्रदर्शन में विश्वास रखता है।
“प्रमाण नहीं, परिपक्वता की पहचान बने शिक्षा”
शिक्षा केवल औपचारिक व्यवस्था नहीं है, यह मनुष्य की चेतना का विस्तार है। इसे केवल सफलता की सीढ़ी नहीं, आत्मबोध की यात्रा के रूप में स्वीकार करना होगा। तभी शिक्षा सार्थक बनेगी—व्यक्ति के भीतर रोशनी फैलाने वाली वह लौ, जो उसके विचारों, संवेदनाओं और कर्मों में निखार लाएगी।

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